Tuesday, January 29, 2013

रेल किराये में बढ़ोत्तरी पर हंगामा क्यों?




पिछले दिनों रेल किराये में बढ़ोत्तरी पर पूरे देश में हंगामा हो गया। ऐसा लगने लगा जैसे सरकार देश की खलनायक है और सम्पूर्ण विपक्ष ही नहीं सरकार को समर्थन दे रहे दल ही आम जनता के सच्चे हितैषी हैं पर अगर इस मुद्दे पर गंभीर मनन किया जाये तो वास्तविकता कुछ और ही पता चलती है।

क्या यह हैरानी की बात नहीं है कि रेल किराये में वृद्धि दस वर्ष बाद की गयी है?
दरअसल गठबंधन की राजनीति में रेल मंत्रालय सरकार के सहयोगी दलों के पास रहा और लोक लुभावनी राजनीति के कारण रेल किराया न बढ़ाना ही जनता के हितैषी होने शुभचिंतक होने का प्रमाण हो गया। अगर सोचा जाये तो रेलवे को संचलित करने में अनेक संसाधन आवश्यक होते है, जिनमें ईंधन, इन्फ्रास्ट्रक्चर सहित सम्पूर्ण स्टाफ के वेतन भत्ते शामिल होते हैं। जाहिर सी बात है की इनमें हर वर्ष वृद्धि होनी ही है तो क्या हर वर्ष किराये में मामूली वृद्धि किया जाना जायज नहीं होगा? क्या रेल किराये को दसियों साल तक न बढाया जाना ही आम जनता के हित की बात होगी?

विपक्ष तो विपक्ष, अधिकतर न्यूज़ चैनेल ने भी लोगों की भावनाओं को भड़काने का ही काम किया जबकि अगर वे इसपर संतुलित और समग्र दृष्टिकोण के साथ रिपोर्टिंग करते तो शायद कुछ अधिक जिम्मेदार लगते पर उनमें सनसनी न होती जो आज आवश्यक हो गयी है।

हैरानी की बात यह भी है कि सरकार भी बचाव की मुद्रा में दिखी जैसे वो भी अपराधबोध से ग्रस्त हो और यह दिखाना चाह रही हो की हालांकि किराये में वृद्धि गलत है पर हम मजबूर हैं। क्या सरकार को जनता के समक्ष और जोरदार तरीके से किराये में की गयी इस वृद्धि के औचित्य और कारणों को नहीं रखना चाहिए था पर लगता है सरकार भी इसी मानसिकता से ग्रस्त है कि रेल किराये में वृद्धि न करना ही जनता के हितैषी होने का एकमात्र  पैमाना है।

आइये इस मुद्दे पर सोचें और अगर कुछ बातों और चीजों को राजनीति से बख्श दें तो देश शायद कुछ बेहतर बन सके ......

आपकी प्रतिक्रिया और विचारों का स्वागत है .

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